सोमवार, 7 दिसंबर 2020

हिन्दू होने का अर्थ

 हिन्दू कौन है? हिन्दू धर्म क्या है? हिन्दूत्व क्या है?  हिन्दूत्व और हिन्दू धर्म में क्या अंतर है? ये कुछ ऐसे प्रश्न है जो हमेशा से हमारे और दूसरों के मन में उठते रहे हैं। कुछ दिनों पहले सामाजिक माध्यम पर भी "हिन्दुस्थान"और "भारत" पर भी जंग छिड़ गई थी। आखिर इस हिन्दू शब्द का अर्थ क्या है? आइए, इसपर चर्चा करते है।

हिन्दू शब्द की उत्पत्ति

हिन्दू शब्द मूलतः सिन्धु का विकृत रूप है। प्राचीन काल से ही सिन्धु नदी के तट लोग रहने लगे थे। सिन्धु शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग इन्हीं लोगों के लिए हुआ था। फारसी में "सिन्धु" का "हिन्दू" बना और बाद में यही "हिन्दू" शब्द योरोपीय भाषाओं में "इंदु", "इंडस" और "इंडिया" बना। 

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आरम्भ "हिन्दू" का अर्थ था सिन्धु नदी के किनारे या उसके दूसरी तरफ रहने वाले लोग। इस्लाम के आगमन के बाद "हिन्दू" शब्द का अर्थ "हिन्दू धर्म" के लिए रूढ़ हो गया और हिन्दुओं का रहने का स्थान का नाम "हिन्दुस्तान" पड़ा। मुसलमान और हिन्दुस्थान रह रहे लोगों में अन्तर के लिए भी "हिन्दू" शब्द का प्रयोग आवश्यक था।

हिन्दू धर्म के मायने

हिन्दू धर्म का सामान्य अर्थ वेदों में वर्णित धर्म से है। वेद हिन्दुओं के मूल ग्रंथ है। अतः वेदों में विश्वास रखनें वालों को ही हिन्दू मानना उचित है। वेदों में वेद, पुराण और उपनिषद भी सम्मिलित है। इसप्रकार हिन्दू धर्म की परिभाषा से, जैन, बौद्ध और सिख हिन्दू नहीं है।

पुराणों में मान्यता होने के कारण शिव, विष्णु और उनके अवतारों, तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा हिन्दूधर्म का का मुख्य अंग है। 

आधुनिक काल (अथवा हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार कलियुग)  में  वेदों में वर्णित निराकार परब्रह्म, इन्द्र, अग्नि, वरुण इत्यादि देवताओं की उपासना बहुत कम देखने को मिलती है।

धर्म और रिलीजन

कई लोग धर्म और रिलीजन में अंतर मानते है। और यह सही भी है, क्योंकि धर्म का मूल अर्थ धारणा से है। उदाहरण के लिए, आग का धर्म गर्मी या जलाना है, पानी का धर्म शीतलता अथवा ठंडा करना है। इस अर्थ में धर्म का अर्थ मनुष्य के धर्म क्या होना चाहिए, वह ही धर्म है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को जिस धर्म का पालन करना उचित हो, वही मनुष्य का धर्म है। अब, प्रश्न यह का कि मनुष्य का उचित धर्म क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हिन्दू के लिए है, वेदों में वर्णित वर्ण-आश्रम व्यवस्था के अनुसार जीवन व्यतीत करना अथवा व्यवहार करना ही मनुष्य का धर्म है। इसप्रकार, रूढ़ अर्थों में, वर्ण-आश्रम व्यवस्था को मानने वाले ही हिन्दू है। जैसा पहले कहा जा चुका है, हिन्दू धर्म के विकास क्रम में, वेदों की मान्यता कम हुई है, क्रमशः पौराणिक देवी-देवताओं की उपासना का प्रचलन अधिक है। अतः वर्ण-आश्रम व्यवस्था की मान्यता कम हुई है। 

मनुष्य का धर्म वर्ण-आश्रम व्यवस्था नहीं हो सकता। इसके पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिये जा सकते है। लेकिन इसके विरोध का प्रमुख कारण है, कि वर्ण-आश्रम व्यवस्था आधुनिक मानवीय मूल्यों के अनुकूल नहीं है। अतः इसे मनुष्य का धर्म नहीं माना जाता सकता।  इसलिए, सामान्य अर्थों में "धर्म" का अर्थ "रिलीजन" मानना ही उचित है। इसप्रकार हिन्दू धर्म भी ईसाई, इस्लाम इत्यादि अन्य रिलीजन की तरह रिलीजन या धर्म है।


हिन्दू धर्म की विशेषता

वेदों में आस्था

हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है, इसका क्रमिक विकास। वेदों से लेकर पुराणों तक हिन्दू धर्म में अनेक मतों अथवा परम्पराओं का जन्म हुआ। 

 यदि इसकी तुलना यहूदी धर्म के की जाए तो, ईसा मसीह यहूदी धर्म में पैदा हुए थे, लेकिन यहूदी धर्म ईसाई धर्म को स्वीकार नहीं कर सका। इसी प्रकार, इस्लाम ने यहूदी और ईसाई धर्म को स्वीकार नहीं किया। जबकि यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म एक ही परम्परा को मानते है। तीनों धर्मों का परमात्मा एक ही निराकार परमेश्वर है। पर यहूदी ईसा मसीह और पैगम्बर मुहम्मद को नबी नहीं मानता। ईसाई धर्म ईसा मसीह से पहले के पैगम्बरों को अस्वीकार नहीं करते, लेकिन ईसा उनके मसीह है। इस्लाम, ईसा और उनके पहले के पैगम्बरों को अस्वीकार नहीं करते, लेकिन मुहम्मह उनका पैगम्बर है। ध्यान दे कि नबी, मसीह और पैगम्बर का एक ही अर्थ है, सिर्फ भाषा का अंतर है। 

इसप्रकार, जहाँ पश्चिम में हुई धार्मिक क्रांतियों से नये धर्म का जन्म हुआ। हिन्दूधर्म ने अनेक विचारधाराओं को अपने में समेट लिया। इस प्रकार, कई लोग जैन, बौद्ध और सिख धर्म को भी हिन्दू मानने का आग्रह करते है, परन्तु जैसा पहले कहा जा चुका है कि वेदों में आस्था न होने के कारण इन्हें हिन्दू मानना उचित नहीं है।

 वर्ण व्यवस्था

वेदों ने हिन्दू समाज को चार वर्णों और चार आश्रम में बाँटा है। चार वर्ण है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ब्राह्मणों को शिक्षा पर, क्षत्रिय को बल और शासन, तथा वैश्य को धन और व्यापार पर एकाधिकार है। शूद्र को शिक्षा, बल तथा धन-सम्पत्ति के अधिकारों से वंचित रखा गया। केवल, श्रम ही शूद्रों का अधिकार है। 

 कहा जाता है कि पूर्व काल में वर्ण जातिगत व्यवस्था नहीं थी। मनुष्य को उसकी जन्मजात स्वभाव या गुण के अनुसार वर्णों में बाँटा जाता था। कालांतर में, वर्ण-व्यवस्था मनुष्य की जन्मजात स्वभाव या गुणों के बजाए जन्म पर आधारित हो गई। इस प्रकार ब्राह्मण का संतान ब्राह्मण, क्षत्रिय की संतान क्षत्रिय, वैश्य की संतान वैश्य और शूद्रों की संतान शूद्र पैदा होने लगी।

 वेदों के अनुसार विराट पुरुष के मुख से, क्षत्रियों की भुजाओं से, वैश्य की पेट से और शूद्रों की पैरों से हुई। इस प्रकार देखा जाए तो चारों वर्ण ईश्वर प्रदत्त है और चारों वर्णों का अपना उचित स्थान है। किसी को ऊँचा या नीचा मानना ईश्वर का अपमान ही है। 

आश्रम व्यवस्था

 वेदों ने मनुष्य की आयु 100 वर्ष की निर्धारित की हैं और इसे चार भागों में बाँटा है। इसमें प्रथम ब्रह्मचर्य आश्रम, प्रथम 25 वर्ष तक शिक्षा के लिए, दूसरा गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष गृहस्थ जीवन के लिए, तीसरा वानप्रस्थ आश्रम 50 से 75 वर्ष सेवानिवृत्ति और लोककल्याण के लिए, तथा 75 वर्ष की आयु के बाद चौथा संन्यास आश्रम ।

आश्रम व्यवस्था शूद्रों के लिए नहीं है। आधुनिक काल में आश्रम व्यवस्था लगभग खतम हो चुकी है।

पुनर्जन्म में विश्वास

 हिन्दू पुनर्जन्म में विश्वास रखते है। हिन्दू मानते है कि प्रत्येक जीव के भौतिक शरीर में एक आत्मा होती है। शरीर नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती। आत्मा अजर अमर है।  

 अन्य भारतीय धर्म, जैन और बौद्ध धर्म भी पुनर्जन्म में विश्वास करते है, परन्तु आत्मा को नहीं मानते।

जाति प्रथा

कालांतर में पुनर्जन्म और वर्ण व्यवस्था के संजोग से जातियों का निर्माण हुआ। यह माना जाने लगा कि वर्ण का निर्धारण मनुष्य के पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर निर्धारित होता है। इस प्रकार, मनुष्य के स्वजात गुणों के बजाए जन्म से जाति और वर्ण का निर्धारण होने लगा। मनुस्मृति से जाति प्रथा बढ़ावा मिला।

हिन्दुत्व अथवा जीने की पद्धति

 भारतीय सुप्रीम कोर्ट में हिन्दुत्व को जीवन व्यतीत करने की पद्धति माना है। वेदों में वर्णित वर्ण-आश्रम व्यवस्था जीने की एक पद्धति है, अतः यह विचार सही प्रतीत होता है। लेकिन, इस आधार पर हम इस्लाम को भी जीने की पद्धति कह सकते है, क्योंकि इस्लामी धर्म ग्रंथों कुरान और हदीद न केवल धार्मिक सिद्धांत और पद्धति है, बल्कि उनमें भी वेद और पुराणों की भाँति नैतिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था भी है।

अतः हिन्दू को धर्म और हिन्दुत्व को सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था मानना उचित नहीं है। विशेष रूप से जबकि देश में राजनैतिक और दंड व्यवस्था के लिए भारत का संविधान उपलब्ध है।

हिन्दू, हिन्दू राष्ट्र और हिन्दुस्तान

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म वैदिक धर्म है। हिन्दू वेदों में आस्था रखते है। लेकिन हिन्दुस्थान का अर्थ हिन्दुओं का स्थान नहीं, बल्कि भारत देश से है।  भारत में रहने वाले सभी भारतीय है, लेकिन हिन्दू नहीं है क्योंकि केवल वेदों में विश्वास रखने वाला ही हिन्दू हो सकता है।

लेकिन कुछ धूर्त लोग यहाँ परिभाषा में गोलमाल करके अपना राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करना चाहते है।  वे हिन्दू के प्राचीन और आधुनिक अर्थों दोनों का उपयोग करते है। इस प्रकार वे "हिन्दू" और "भारतीय" को समानार्थी मानते है। वे हिन्दुत्व को जीने की पद्धति कहते है और भारतीय संस्कृति को हिन्दू संस्कति कहते है। लेकिन बन्द कमरों में "हिन्दू" का अर्थ सिर्फ और हिन्दू धर्म से लगाता है, जिसमें वर्ण-व्यवस्था की पुनर्स्थापना का भी आग्रह रहता है।

निष्कर्ष

हिन्दू धर्म भी अन्य धर्मों की तरह एक रिलीजन या धर्म है। अन्य धर्म भी हिन्दू धर्म की तरह जीने की पद्धति है। भारत का संविधान, सभी नागरिकों को अपने धर्म अनुसार पूजा-उपासना करने और जीने का अधिकार देता है। इसलिए सभी भारतीयों को "हिन्दू" और भारतीय संस्कृति को "हिन्दू संस्कृति" कहना गलत है। भारत में सभी धर्मों के मानने लोग है।  सिर्फ हिन्दू संस्कृति बल्कि अन्य संस्कृति भी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। जिसप्रकार शूद्रों को शिक्षा, बल और धन-संपत्ति से वंचित करके हिन्दू समाज लूला-लँगड़ा हो गया है, उसी प्रकार, 30 करोड़ भारतीयों को वंचित करके देश का विकास नहीं हो सकता।



 







कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें