बुधवार, 16 दिसंबर 2020

Saffron Fascism by Shyam Chand

फर्जी राष्ट्रवाद

 किसी भी चीज की अधिकता अधिक नहीं होती। यही बात राष्ट्रवाद पर लागू होती है।  फासीवाद (फ़ासिज़्म) और नाजीवाद (नेशनल सोशलिज्म अथवा राष्ट्रीय समाजवाद)भी अति राष्ट्रवाद के दो प्रमुख उदाहरण है।

फाजीवाद एक अति राष्ट्रवादी, निरंकुश, महानायकवादी प्रवृति है। विरोधियों का हिंसक दमन, समाज और अर्थव्यवस्था का धुर्वीकरण इसके मुख्य लक्षण है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद मुसोलिनी ने इटली में इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया।

नाजीवाद फाजीवाद का एक रूप है जिसे जर्मनी में हिटलर के शासन में देखने को मिलता है। इसमें लोकतंत्र और संसद का तिरस्कार, जातीय शुद्धिता और मिथ्या अभिमान, एक राष्ट्र - एक धर्म - एक भाषा, एक संस्कृति का आग्रह है।

दूसरे विश्व युद्ध से पहले इटली में फासीवाद और जर्मनी में नाजीवाद का बोलबाला था। ये दोनों विचारधाराएँ कितनी विषैली और हानिकारक है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दूसरे विश्व युद्ध का एक मात्र कारण ये दोनों विचारधाराओं है, जिससे न सिर्फ इटली और जर्मनी बरबाद हो गए, बल्कि पूरे विश्व को भीषण तबाही हुई। लाखों सिपाही और निर्दोष लोग मारे गए। इसलिए इन दोनों पृवत्तियों को फर्जी राष्ट्रवाद कहना उचित है।

दूसरे विश्वयुद्ध के समय से ही भारत में इस तरह की प्रवृतियाँ पैदा हो गई थी। राष्ट्रीय स्वयं संघ (RSS) पर हमेशा से ही फासीवाद और नाजीवाद की विचारधारा को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे है। 

श्याम चंद ने इस विषय पर एक पुस्तक "सैफ्रन फासिज्म" (2002) लिखी है। 

 श्याम चंद

श्याम चंद का जन्म 9 मार्च 1932 को हरियाणा में, सोनीपत के गाँव लाठ में हुआ। माता, पिता और भाई की मृत्यु को बाद श्याम चंद ने किशोर अवस्था कई वर्षों तक में मजदूरी की। बाद में एक प्राइवेट स्कूल में भरती हो गए और नौवी - दसवी की परीक्षा एक ही साल में पंजाब विश्ववि्द्यालय से प्रथम श्रेणी में पास की। बाद में नौकरी करते हुए उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय (सांय कालीन कालेज) से बी.ए. और एम. ए. किया। 

श्याम चंद ने 1960 में भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) की परीक्षा पास की। लेकिन इस्तीफा देकर ब्रिटिश सिविल सर्विस में चले गए।

श्याम चंद ने 1968 में और फिर 1972 में हरियाणा विधान सभा का चुनाव जीता। हरियाणा सरकार में कैबिनेट स्तर के मंत्री बने। टैक्स संबंधी सुधारों से उनके कार्यकाल हरियाणा के राजस्व में तीन गुना वृद्धि हुई। उन्होंने इंस्पेक्टर राज को समाप्त किया। हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण का गठन किया और उसके पहले अध्यक्ष बने। राज्य मे दहेज विरोधी कानून पास कराया। तकनीकी शिक्षा और समाज सुधार के अनेक कार्यक्रम चलाए।  उन्होंने राज्य में पब्लिक डिस्ट्रीबूशन सिस्टम (PDS) की स्थापना की और हरियाणा के किसानों को पंजाब से ज्यादा समर्थन मूल्य दिलवाया।

मंत्री पद पर नहीं रहने के बाद श्याम चंद ने प्राइवेट नौकरी की। 

श्याम चंद की मृत्य 8 मई 2018 को 86 वर्ष की आयु में हुई।

Saffron Fascism

Contents

1. Introduction

2. Counter Revolution

3. Caste System - An Exotic Concept

4. Assassination of the Mahatma

5. Misappropriation of National Symbols

6. God's Wrath

7. Culture Uncultivated

8. Punch in Thought

9. Vedic Lores, Not Scientific

10. RSS and Fascism

11. Nation on Rajor's Edge

12. The Day After

13. Bibliography.

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मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

मुल्ला नसरुद्दीन

मुल्ला नसरुद्दीन होजा एक मनमौजी, बुद्धिमान और हँस-मुख आदमी था। वह तेरहवीं शताब्दी में तुर्की में पैदा हुआ था। 

बीरबल और तेनालीराम की तरह नसरुद्दीन की सूझ-बूझ भी सैंकड़ों किस्से मशहूर है। बीरबल और तेनालीराम और नसरुद्दीन के किस्सों में विशेष अन्तर यह है कि कई बार अपना पक्ष सिद्ध करने के लिए वह स्वयं मूर्ख और मजाक का पात्र बन जाता है। इस प्रकार जबकि बीरबल और तेनालीराम राजा है, नसरुद्दीन एक आम आदमी है। 

ओशो रजनीश ने अपने अनेक उपदेशों में नसरुद्दीन को अपनी कहानियों का पात्र बनाया है। एक उदाहरण प्रस्तुत है। 

एक बार नसरुद्दीन की अंगूठी खो गई। वह बाहर जाकर उसे ढूँढने लगा। 

बीवी ने पूछा, मुल्ला तुम्हारी अंगूठी तो अन्दर खोई है, तुम बाहर क्यों ढूँढ़ रहे है? 

मुल्ला ने अपनी दाढ़ी खुललाई और बोला, अंदर अंधेरा है और मुझे दिखता भी कम है। यहाँ बाहर उजाला है, इसलिए बाहर ढूँढ़ रहा हूँ।

इस कहानी को पढ़कर हमें नसरुद्दीन की बेवकूफी पर हँसी आती है। लेकिन ओशो कहानी के अंत में ओशो अपना उपदेश जोड़ देते है और कहते है, हम नसरुद्दीन पर हँस रहे है, लेकिन अपने जीवन में यही करते है। भगवान मनुष्य के हृदय में वास करते है, और मनुष्य उसकी तलाश में मारा-मारा फिरता है। जैसे, कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूँढ़े बन माहि। 

आज इतना ही।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

आधुनिक हिन्दू राष्ट्र

 देश में अंग्रेजी राज से पूर्व अनेक राज्य मुगलों के नियंत्रण से मुक्त हो गए थे। कई राजपूत और मराठा राज्य स्वतंत्र थे। आइए, इन हिन्दू राज्यों में हिन्दुओं की स्थिति पर एक नजर डालते है --

स्त्रिओं का स्थिति

मनुस्मृति के अनुसार स्त्री को विवाह पूर्व पिता, विवाह पश्चात् पति और वृद्धावस्था में अपने पुत्र पर आश्रित रहना चाहिए। स्त्रियों की शिक्षा और व्यवसाय का कोई अवसर नहीं था। परन्तु कई ब्राह्मण और सम्पन्न परिवारों में घर पर ही लड़कियों की शिक्षा प्रबन्ध किया जाता था। 

विधवा स्त्रियों के लिए समाज में कोई स्थान नहीं था। विधवाओं के लिए दो विकल्प थे या तो वे अपने पति के साथ सती हो जाए या काशी अथवा वृंदावन में पूजा-उपासना में अपना जीवन व्यतीत करे। पुनर्विवाह का अधार्मिक कार्य था। सती होना पुण्य कार्य, क्योंकि पति के बिना स्त्री के जीवन की कल्पना करना भी असम्भव था। विधवाओं का जीवन इतना दुष्कर था कि अनेक स्त्रियों विधवा जीवन से सती होना ज्यादा सुखदायी समझती था। विधवाओं को जबर्दस्ती सती करने की भी अनेक घटनाएँ इतिहास के काले पन्नों में लिखी हुई है। भारत में अंग्रजों ने जब सती निषेध कानून बनाया तब कई "कट्टर" हिन्दुओं ने उसका बहुत विरोध किया था।

शूद्रों की स्थिति

शूद्रों का शिक्षा, प्रशासन और धन-सम्पति पर कोई अधिकार नहीं था। वे अपने निर्धारित कर्म अर्थात् माली को माली का काम, नाई को नाई का काम, धोबी को धोबी का काम, भंगियो को सफाई का काम और चमारों के लिए जूते इत्यादि बनाने का काम निर्धारित था। शूद्रों में भंगी और चमारों को शूद्रों में भी सबने नीचे, अतिशूद्र या दलित माना जाता था।  "उच्च" वर्णों के लोग इनकी परछाई से भी दूर भागते थे।  अतिशूद्रों अथवा दलितों को समाज हमेशा से समाज से अलग रखा जाता था। उनकी झोंपड़ियाँ नगर अथवा गाँवों से बाहर होती थी। वे नियत समय पर ही नगर में प्रवेश कर सकते थे। वे "उच्च" वर्णों के कुओं इत्यादि से पानी नहीं भर सकते थे।

पेश्वा शासन में शूद्रों को अपने साथ एक हाड़ी और एक झाडू रखना आवश्यक था। जिसके वे सिर्फ अपनी हाड़ी में ही थूके और चलते समय सड़क को साफ करते रहे। अगर गलती से किसी शूद्र ने किसी "उच्च" वर्ण के व्यक्ति को छू दिया तो समझो उसकी शामत आ गई।

इन परिस्थितियों में यह स्वाभाविक ही था कि शूद्र अंग्रेजी राज का दिल से स्वागत करते।



प्राचीन हिंदू राष्ट्र - रामराज्य

 रामराज्य का आदर्श

रामराज्य हिन्दुओं का आदर्श समाज अथवा राज्य है जहाँ सभी "नागरिक" सुखी और स्वस्थ रहे। व्यक्तियों की आयु 100 वर्ष की हो। यहाँ "नागरिक" जानबूझ कर इसलिए लिखा गया है क्योंकि इस राज्य में जंगली लोगों (अथवा असुर या राक्षसों) का प्रवेश वर्जित है।

 वर्ण-व्यवस्था

इस रामराज्य की स्थापना के लिए वर्ण-व्यवस्था का प्रावधान किया है। वर्ण व्यवस्था के अनुसार सभी नागरिकों को उनके स्वभाव अथवा जन्मजात गुणों के आधार पर चार वर्णों में बाँटा गया है। चारों वर्ण और उनके अधिकार निम्न प्रकार है --

स्तर वर्ण विषय अधिकार कर्तव्य
1. ब्राह्मण धर्म शिक्षा और धर्म समाज का मार्गदर्शन
2. क्षत्रिय बल शासन और सेना राष्ट्र की सुरक्षा
3. वैश्य धन व्यापार धर्म और राष्ट्र के लिए धन व्यवस्था
4. शूद्र श्रम सेवा, खेती, शिल्प इत्यादि उपरोक्त तीनों वर्णों की सेवा

 वर्णों पर आधारित अधिकार और कर्तव्य एक प्रकार की आरक्षण व्यवस्था थी जिसमें जन्म के आधार पर लोगों का व्यवसाय निर्धारित था। अब पुरोधित का बेटा पुरोहित, आचार्य का बेटा, राजा का बेटा राजा, सेनापति का बेटा, मंत्री का बेटा मंत्री, नौकर का बेटा नौकर, कोतवाल का बेटा कोतवाल, जमींदार का बेटा जमींदार, व्यापारी का बेटा व्यापारी, सूदखोर का बेटा सूदखोर, किसान का बेटा किसान, हलवाई का बेटा हलवाई, नाई का बेटा नाई, धोबी का बेटी धोबी,  मजदूर का बेटा मजदूर ही बन सकता था।

शिक्षा व्यवस्था

रामराज्य में शिक्षा के लिए गुरुकुलों की व्यवस्था थी। केवल प्रथम तीनों वर्ण के बच्चे को शिक्षा का अधिकार था।

क्रम वर्ण शिक्षा का स्तर
अधिकार
1. ब्राह्मण उच्चवेदों की रचना और अध्यापन
2. क्षत्रिय मध्यमधर्म, शासन और शस्त्र प्रशिक्षण
3. वैश्य निम्नधर्म और व्यापार की शिक्षा
4. शूद्र -पारंपारिक व्यवसाय

 इस विषय में किसी को किसी प्रकार का भ्रम नहीं होना चाहिए कि शिक्षा के स्तर से ही व्यक्ति के सामाजिक स्तर निर्धारण होता है। ब्राह्मणों ने धर्म और शिक्षा को अपने अधिकार पर रखकर, तथा अन्य वर्णों की शिक्षा को नियंत्रित करके समाज में एक अप्राकृतिक गुणों के विकास को बढ़ावा दिया।

  शूद्रों को शिक्षा, प्रशासन और धन पर कोई अधिकार नहीं था। परन्तु शिक्षा के अभाव से वे अपने पारंपरिक व्यसायों के अलावा अन्य किसी भी प्रकार के कार्य को करने में असमर्थ हो गए। आधुनिक काल में अंग्रेजी शासन के अंतर्गत सर्वप्रथम शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ।

 

सोमवार, 7 दिसंबर 2020

हिन्दू होने का अर्थ

 हिन्दू कौन है? हिन्दू धर्म क्या है? हिन्दूत्व क्या है?  हिन्दूत्व और हिन्दू धर्म में क्या अंतर है? ये कुछ ऐसे प्रश्न है जो हमेशा से हमारे और दूसरों के मन में उठते रहे हैं। कुछ दिनों पहले सामाजिक माध्यम पर भी "हिन्दुस्थान"और "भारत" पर भी जंग छिड़ गई थी। आखिर इस हिन्दू शब्द का अर्थ क्या है? आइए, इसपर चर्चा करते है।

हिन्दू शब्द की उत्पत्ति

हिन्दू शब्द मूलतः सिन्धु का विकृत रूप है। प्राचीन काल से ही सिन्धु नदी के तट लोग रहने लगे थे। सिन्धु शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग इन्हीं लोगों के लिए हुआ था। फारसी में "सिन्धु" का "हिन्दू" बना और बाद में यही "हिन्दू" शब्द योरोपीय भाषाओं में "इंदु", "इंडस" और "इंडिया" बना। 

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आरम्भ "हिन्दू" का अर्थ था सिन्धु नदी के किनारे या उसके दूसरी तरफ रहने वाले लोग। इस्लाम के आगमन के बाद "हिन्दू" शब्द का अर्थ "हिन्दू धर्म" के लिए रूढ़ हो गया और हिन्दुओं का रहने का स्थान का नाम "हिन्दुस्तान" पड़ा। मुसलमान और हिन्दुस्थान रह रहे लोगों में अन्तर के लिए भी "हिन्दू" शब्द का प्रयोग आवश्यक था।

हिन्दू धर्म के मायने

हिन्दू धर्म का सामान्य अर्थ वेदों में वर्णित धर्म से है। वेद हिन्दुओं के मूल ग्रंथ है। अतः वेदों में विश्वास रखनें वालों को ही हिन्दू मानना उचित है। वेदों में वेद, पुराण और उपनिषद भी सम्मिलित है। इसप्रकार हिन्दू धर्म की परिभाषा से, जैन, बौद्ध और सिख हिन्दू नहीं है।

पुराणों में मान्यता होने के कारण शिव, विष्णु और उनके अवतारों, तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा हिन्दूधर्म का का मुख्य अंग है। 

आधुनिक काल (अथवा हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार कलियुग)  में  वेदों में वर्णित निराकार परब्रह्म, इन्द्र, अग्नि, वरुण इत्यादि देवताओं की उपासना बहुत कम देखने को मिलती है।

धर्म और रिलीजन

कई लोग धर्म और रिलीजन में अंतर मानते है। और यह सही भी है, क्योंकि धर्म का मूल अर्थ धारणा से है। उदाहरण के लिए, आग का धर्म गर्मी या जलाना है, पानी का धर्म शीतलता अथवा ठंडा करना है। इस अर्थ में धर्म का अर्थ मनुष्य के धर्म क्या होना चाहिए, वह ही धर्म है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य को जिस धर्म का पालन करना उचित हो, वही मनुष्य का धर्म है। अब, प्रश्न यह का कि मनुष्य का उचित धर्म क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हिन्दू के लिए है, वेदों में वर्णित वर्ण-आश्रम व्यवस्था के अनुसार जीवन व्यतीत करना अथवा व्यवहार करना ही मनुष्य का धर्म है। इसप्रकार, रूढ़ अर्थों में, वर्ण-आश्रम व्यवस्था को मानने वाले ही हिन्दू है। जैसा पहले कहा जा चुका है, हिन्दू धर्म के विकास क्रम में, वेदों की मान्यता कम हुई है, क्रमशः पौराणिक देवी-देवताओं की उपासना का प्रचलन अधिक है। अतः वर्ण-आश्रम व्यवस्था की मान्यता कम हुई है। 

मनुष्य का धर्म वर्ण-आश्रम व्यवस्था नहीं हो सकता। इसके पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिये जा सकते है। लेकिन इसके विरोध का प्रमुख कारण है, कि वर्ण-आश्रम व्यवस्था आधुनिक मानवीय मूल्यों के अनुकूल नहीं है। अतः इसे मनुष्य का धर्म नहीं माना जाता सकता।  इसलिए, सामान्य अर्थों में "धर्म" का अर्थ "रिलीजन" मानना ही उचित है। इसप्रकार हिन्दू धर्म भी ईसाई, इस्लाम इत्यादि अन्य रिलीजन की तरह रिलीजन या धर्म है।


हिन्दू धर्म की विशेषता

वेदों में आस्था

हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है, इसका क्रमिक विकास। वेदों से लेकर पुराणों तक हिन्दू धर्म में अनेक मतों अथवा परम्पराओं का जन्म हुआ। 

 यदि इसकी तुलना यहूदी धर्म के की जाए तो, ईसा मसीह यहूदी धर्म में पैदा हुए थे, लेकिन यहूदी धर्म ईसाई धर्म को स्वीकार नहीं कर सका। इसी प्रकार, इस्लाम ने यहूदी और ईसाई धर्म को स्वीकार नहीं किया। जबकि यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म एक ही परम्परा को मानते है। तीनों धर्मों का परमात्मा एक ही निराकार परमेश्वर है। पर यहूदी ईसा मसीह और पैगम्बर मुहम्मद को नबी नहीं मानता। ईसाई धर्म ईसा मसीह से पहले के पैगम्बरों को अस्वीकार नहीं करते, लेकिन ईसा उनके मसीह है। इस्लाम, ईसा और उनके पहले के पैगम्बरों को अस्वीकार नहीं करते, लेकिन मुहम्मह उनका पैगम्बर है। ध्यान दे कि नबी, मसीह और पैगम्बर का एक ही अर्थ है, सिर्फ भाषा का अंतर है। 

इसप्रकार, जहाँ पश्चिम में हुई धार्मिक क्रांतियों से नये धर्म का जन्म हुआ। हिन्दूधर्म ने अनेक विचारधाराओं को अपने में समेट लिया। इस प्रकार, कई लोग जैन, बौद्ध और सिख धर्म को भी हिन्दू मानने का आग्रह करते है, परन्तु जैसा पहले कहा जा चुका है कि वेदों में आस्था न होने के कारण इन्हें हिन्दू मानना उचित नहीं है।

 वर्ण व्यवस्था

वेदों ने हिन्दू समाज को चार वर्णों और चार आश्रम में बाँटा है। चार वर्ण है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ब्राह्मणों को शिक्षा पर, क्षत्रिय को बल और शासन, तथा वैश्य को धन और व्यापार पर एकाधिकार है। शूद्र को शिक्षा, बल तथा धन-सम्पत्ति के अधिकारों से वंचित रखा गया। केवल, श्रम ही शूद्रों का अधिकार है। 

 कहा जाता है कि पूर्व काल में वर्ण जातिगत व्यवस्था नहीं थी। मनुष्य को उसकी जन्मजात स्वभाव या गुण के अनुसार वर्णों में बाँटा जाता था। कालांतर में, वर्ण-व्यवस्था मनुष्य की जन्मजात स्वभाव या गुणों के बजाए जन्म पर आधारित हो गई। इस प्रकार ब्राह्मण का संतान ब्राह्मण, क्षत्रिय की संतान क्षत्रिय, वैश्य की संतान वैश्य और शूद्रों की संतान शूद्र पैदा होने लगी।

 वेदों के अनुसार विराट पुरुष के मुख से, क्षत्रियों की भुजाओं से, वैश्य की पेट से और शूद्रों की पैरों से हुई। इस प्रकार देखा जाए तो चारों वर्ण ईश्वर प्रदत्त है और चारों वर्णों का अपना उचित स्थान है। किसी को ऊँचा या नीचा मानना ईश्वर का अपमान ही है। 

आश्रम व्यवस्था

 वेदों ने मनुष्य की आयु 100 वर्ष की निर्धारित की हैं और इसे चार भागों में बाँटा है। इसमें प्रथम ब्रह्मचर्य आश्रम, प्रथम 25 वर्ष तक शिक्षा के लिए, दूसरा गृहस्थ आश्रम 25 से 50 वर्ष गृहस्थ जीवन के लिए, तीसरा वानप्रस्थ आश्रम 50 से 75 वर्ष सेवानिवृत्ति और लोककल्याण के लिए, तथा 75 वर्ष की आयु के बाद चौथा संन्यास आश्रम ।

आश्रम व्यवस्था शूद्रों के लिए नहीं है। आधुनिक काल में आश्रम व्यवस्था लगभग खतम हो चुकी है।

पुनर्जन्म में विश्वास

 हिन्दू पुनर्जन्म में विश्वास रखते है। हिन्दू मानते है कि प्रत्येक जीव के भौतिक शरीर में एक आत्मा होती है। शरीर नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती। आत्मा अजर अमर है।  

 अन्य भारतीय धर्म, जैन और बौद्ध धर्म भी पुनर्जन्म में विश्वास करते है, परन्तु आत्मा को नहीं मानते।

जाति प्रथा

कालांतर में पुनर्जन्म और वर्ण व्यवस्था के संजोग से जातियों का निर्माण हुआ। यह माना जाने लगा कि वर्ण का निर्धारण मनुष्य के पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर निर्धारित होता है। इस प्रकार, मनुष्य के स्वजात गुणों के बजाए जन्म से जाति और वर्ण का निर्धारण होने लगा। मनुस्मृति से जाति प्रथा बढ़ावा मिला।

हिन्दुत्व अथवा जीने की पद्धति

 भारतीय सुप्रीम कोर्ट में हिन्दुत्व को जीवन व्यतीत करने की पद्धति माना है। वेदों में वर्णित वर्ण-आश्रम व्यवस्था जीने की एक पद्धति है, अतः यह विचार सही प्रतीत होता है। लेकिन, इस आधार पर हम इस्लाम को भी जीने की पद्धति कह सकते है, क्योंकि इस्लामी धर्म ग्रंथों कुरान और हदीद न केवल धार्मिक सिद्धांत और पद्धति है, बल्कि उनमें भी वेद और पुराणों की भाँति नैतिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था भी है।

अतः हिन्दू को धर्म और हिन्दुत्व को सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था मानना उचित नहीं है। विशेष रूप से जबकि देश में राजनैतिक और दंड व्यवस्था के लिए भारत का संविधान उपलब्ध है।

हिन्दू, हिन्दू राष्ट्र और हिन्दुस्तान

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म वैदिक धर्म है। हिन्दू वेदों में आस्था रखते है। लेकिन हिन्दुस्थान का अर्थ हिन्दुओं का स्थान नहीं, बल्कि भारत देश से है।  भारत में रहने वाले सभी भारतीय है, लेकिन हिन्दू नहीं है क्योंकि केवल वेदों में विश्वास रखने वाला ही हिन्दू हो सकता है।

लेकिन कुछ धूर्त लोग यहाँ परिभाषा में गोलमाल करके अपना राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करना चाहते है।  वे हिन्दू के प्राचीन और आधुनिक अर्थों दोनों का उपयोग करते है। इस प्रकार वे "हिन्दू" और "भारतीय" को समानार्थी मानते है। वे हिन्दुत्व को जीने की पद्धति कहते है और भारतीय संस्कृति को हिन्दू संस्कति कहते है। लेकिन बन्द कमरों में "हिन्दू" का अर्थ सिर्फ और हिन्दू धर्म से लगाता है, जिसमें वर्ण-व्यवस्था की पुनर्स्थापना का भी आग्रह रहता है।

निष्कर्ष

हिन्दू धर्म भी अन्य धर्मों की तरह एक रिलीजन या धर्म है। अन्य धर्म भी हिन्दू धर्म की तरह जीने की पद्धति है। भारत का संविधान, सभी नागरिकों को अपने धर्म अनुसार पूजा-उपासना करने और जीने का अधिकार देता है। इसलिए सभी भारतीयों को "हिन्दू" और भारतीय संस्कृति को "हिन्दू संस्कृति" कहना गलत है। भारत में सभी धर्मों के मानने लोग है।  सिर्फ हिन्दू संस्कृति बल्कि अन्य संस्कृति भी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। जिसप्रकार शूद्रों को शिक्षा, बल और धन-संपत्ति से वंचित करके हिन्दू समाज लूला-लँगड़ा हो गया है, उसी प्रकार, 30 करोड़ भारतीयों को वंचित करके देश का विकास नहीं हो सकता।